मूर्धन्य है , जगमन्य है , तुझको हिमालय धन्य है
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
वन वृक्ष की ये श्रंखला , जोगी जती सी सोहती
भू – वनस्पति सत्शिष्य सम , स्व -गुरु का मग जोहती ,
जोग -रत बट देह पे , तरु -जटाएं अनन्य हैं,
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
जिस और दृष्टि फेरिये ,उस और कौतुक हेरिये ,
चित्रकारी के कुशलतम कारगर को टेरिये ,
फिर भी न कुशलतम हिमालय से कारीगरी कोई अन्य है ,
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
शांति मनोहर हर तरफ , फिर ध्वनि कोई होवती ,
ज्यों पिय-मिलन जाती युवति ,स्व नूपुरों पर मोहती ,
ऐसी अनेको नहर नदिया , निज -यात्रा में संलग्न है ,
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
पशु पक्षी सुनिपुण भाट सम, विरुदावली है गा रहे ,
पुर पुरातन से भी पुरातन,इतिहास वे सुना रहे ,
इतिहास के हैं साक्ष्य सब , तव देह पर जो चिन्ह हैं
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
वत्स-बिछुड़ी धेनु ज्यों गेह तन को धावती ,
तैसे ही छाया हिमालय की घाटियों में आवती ,
छाया की आयु दीर्घ ,आयु धुप की यहाँ निम्न है ,
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
शीतल पवन रणबांकुरे सी चहु दिशा में भागती ,
करती शिथिल सबको ,जिस -जिस को पथ में पावती
ऐसी सुभट ,सुदृढ़ और वीर हिमालय की सैन्य है ,
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
रात्रि सुबदन कामिनी की , मोहक -मनोहर है छटा ,
जिसका बदन मुक्ता -मणि ,हीरे -मोतियों से है पटा ,
हिमवान की समालिंगिता , ऐसी प्रेयसी न अन्य है
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
अविचल , सुदृढ़ सर्वोपरि , तुंग चोटियां हिमवान की ,
ज्ञान ,त्याग ,विराग की ,धरोहर धवल स्वाभिमान की,
इस देश की नदियां ,वन -ओ -उपवन , तेरे ही सौजन्य है
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
मूर्धन्य है , जगमन्य है , तुझको हिमालय धन्य है
तू सृष्टि से संपन्न है ,तुझको हिमालय धन्य है |
कविता के लेखक हैं-
*महिपाल सिंह गुर्जर*
प्रशिक्षु अधिकारी
भारतीय रेल यातायात सेवा

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